इससे पहले कि भारतीय नीति-निर्माताओं को समझआये कि बी.टी. कपास भारतीय किसानों को कर्ज की स्थिति में घसीटने और उनका धन लूटने का एक जरिया मात्र है, न जाने कितने और किसान मौत के मुंह में चले जाएंगे। प्रारम्भ से ही बी.टी कपास पूर्णतः एक असफल प्रयोग रहा है। इस प्रयोग के एवज में हमने लाखों किसान भाइयों को खो दिया है। कपास उत्पादन क्षेत्र अब पूर्णरूप से बी.टी. कपास क्षेत्र में बदल गये हैं। इन क्षेत्रों में तीन-लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। जी.एम तथा बी.टी. बीज सम्भावित कीट-नियंत्रण तकनीक के आधार पर तैयार किए गए, ताकि कीट नाशकों के प्रयोग की आवश्यकता न पडे़। 1998 से भारत में बी.टी. कपास का अवैधानिक प्रयोग हुआ और फिर 2002 में जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमीटी ने इस प्रजाति को खेतों में बोने की अनुमति दे दी, तब से आज तक यही बात सिद्ध हुई है कि बी.टी. कपास कीटों को बढ़ावा देने वाली प्रजाति है। आंकडे़ बताते हैं कि इससे पहले भारत में कपास की फसल महामारी की इस हद तक कभी प्रभावित नहीं हुई।

हाल ही में पंजाब के जिस क्षेत्र में सफेद मक्खी के कारण कपास की दो-तिहाई फसल बर्बाद हो गई, इस उपजाऊ क्षेत्र में इससे पूर्व सफेद मक्खी द्वारा ऐसा प्रकोप हुआ ही न था। इस घटना से प्रभावित होकर यहां 15 किसानों ने आत्महत्या कर दी। अब इस बात को सामने रखने का समय आ गया है कि जी.एम.ओ फसलों का खेतों में परीक्षण से किसान कर्ज की विकराल स्थिति में सकते हैं और इससे किसानों को आत्महत्या के लिए फिर से विवश होना पडे़गा। अब तक बी.टी. फसलों के कारण तीन-लाख से अधिक किसानों की आत्महत्या हमारे लिए भंयकर कृषि-आपदा है। हमें इस कृषि संकट से सबक लेकर जी.एम. ओ. पद्धति की ओर जाने से देश को रोकना होगा, ताकि हम कर्ज और आत्महत्याओं की आलोचनीय स्थिति से उभर सकंे। मोनसेंटो न केवलएक असफल प्रौद्योगिकी को भारतीय खेतों में थोपने पर लगा हुआ है, बल्कि वह जबरन ही हमारे छोटे-किसानों से राॅयल्टी वसूल कर उन्हें कर्ज की गर्त में फंसाने का का कुचक्र रच रहा है। भारत के कई राज्यों मेें बीज पर राॅयल्टी के मामले दर्ज किए गये हैं। सरकार को चाहिए कि वह भ्रष्ट कम्पनियों की बजाय किसान और कृषि का संरक्षण करे। इन बड़ी बीज कम्पनियों द्वारा प्रौद्योगिक असफलता तथा राॅयल्टी वसूलने पर सरकार की पारदर्शिता नितांत आवश्यक है।

हम जन-सुनवाई के माध्यम से किसानों की आत्महत्या की पड़ताल कर रहे हैं। इस बात की आवश्यकता है कि मौत के भंवर में फंस रहे किसानों को बचाने के हर सम्भव प्रयास मिलकर किए जायें। आज के हालात 1980 के उस मंजर की याद दिलाते हैं, जब पंजाब के गांवों के सभी सम्पन्न और गरीब किसान मौसम परिवर्तन के चलते कृषि संकट से जूझते हुए कर्ज के जाल में जकड़ गये थे।

हरित-क्रांति के साथ ही जीन क्रांति तथा जी.एम.ओ को उच्च आय प्रदान करने तथा ग्रामीण गरीबी को दूर करने के लिहाज से लाया गया, लेकिन इसके ठीक विपरीत ये उपाय किसानों को और गरीब बनाते गये और कर्जे की स्थिति ने उन्हें आत्महत्या करने तक मजबूर कर दिया। तथा कथित क्रांतियांें के लालच में आकर किसानों ने खेती की परम्परिक विधियों को त्यागकर महंगे बीज और खाद खरीदे। इससे अगर किसी को लाभ पहुंचा, तो वे थीं बड़ी बीज कम्पनियां।

पंजाब में एकल-कृषि के प्रयोग से वहां की कृषि जैव-विविधता को बहुत बड़ा नुकसान हुआ।और यही नुकसान वहां के कृषिक समाज के लिए एक बड़ा अभिशाप बन बैठा। पंजाब आज भी हरित-क्रांति के एवज में मिली लाचारी, बीमारी, कर्ज तथा बेरोजगार की स्थिति से उभरने की कोशिश कर रहा है।

राज्य में दो-तिहाई बी.टी कपास की खेती बर्बाद हो गई है। पिछले चालीस वर्षों में यह स्थिति दूसरी बार देखने को मिल रही है। इससे एक बार फिर सिद्ध हो गया है कि जी.एम.ओ तथा रासायनिक कीटनाशक कीटों को नियंत्रण करने की अप्रभावी विधियां हैं। विश्वभर के वैज्ञानिक अध्ययन यह बताते हैं कि उपरोक्त विषाक्त ऐसे सूपर खरपतवार तथा कीटों को जन्म देते हैं, जिन पर नियंत्रण पाना अत्यंत कठिन हो जाता है, लेकिन अफसोस!हमारी सरकारें इसी जहर को पर सब्सिडी प्रदान करने की बात करती हैं।

पंजाब एक बार फिर बीज कम्पनियों की कथनी और करनी के दुराग्रह की मार को झेल रहा है। राज्य में एक कैंसर ट्रेन चलती है जो मरीजों को भटिण्डा के धर्मार्थ अस्पताल तक ले जाती है। यहां कैंसर के मरीज और किसानोंकी आत्महत्याओं का जन्म किसी न किसी रूप से कृषि रसायन तथा विषाक्त के कारणही हुआ है। इन कीटों के नियंत्रण के लिए जैविक कीटनाशक ही एक मात्र विकल्प हैं।ज्ञात हो कि हरित-क्रांति के साथ जब संकर बीजों का पदार्पण पंजाब के खेतों में हुआ, तब से प्रत्येक वर्ष वहां नई तरह की बीमारियों और नए कीड़ों ने पैर पसारने प्रारम्भ कर किये। पंजाब की घटना को देखकर यह कहा जासकताहै कि यहांभूरे, सफेद टिड्डे तथा हिस्पा कीटों ने महामारी के रूप में वापसी कर ली है या फिर कृषि-वैज्ञानिक इन कीटों पर नियंत्रण करने में पूरी तरह से विफल रहे हैं।

बीमारी और कीटों की पहचान के बाद कम्पनियों द्वारा उपचार के रूप में कृषि-रसायनों को अपनाना किसी प्रकार का स्थाई विकल्प कभी नहीं दे सकता और वर्तमान में हुई घटना इस बात के लिए स्थाई समाधान ही मांगती है। गैर-जी.एम. बीज तथा प्राकृतिक कीटनाशक जहां कीटों पर नियंत्रण में सहायक होते हैं, वहीं उनसे फसलों को कोई नुकसान भी नहीं पहुंचता। इस मामले में पंजाब सहित सम्पूर्ण विश्व के किसानों को एक साथ चलने की आवश्यकता है। हमें जैविक-विधि से बने ऐसे कीटनाशकों को अपनाना होगा, जो कृषि पारस्थितिकी पर बुरा प्रभाव न डालते हों। किसानों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए हमें गांधी जी के दर्शन ’अहिंसा और स्वराज’को अपनाकर कार्य करना होगा। भारत के लिए वही मार्ग उचित रहेगा, जिसपर हम विगत 5000 वर्षों से लगातार सफलता पूर्वक अग्रसर होते आ रहे हैं। इसके लिए हमें भारतीय गांवों को कृषि-उत्पादन हेतु प्रत्येक विधा में आत्मनिर्भर बनाना पडे़गा। अगर हम नहीं चाहते कि फिर से पंजाब जैसी स्थिति उत्पन्न हो, तो इसके लिए हमें स्थानीय बीजों का संरक्षण करते हुए कृषि जैव-विविधता को बढ़ावा देना होगा। यही वर्तमान समय की मांग भी है। प्राकृतिक पद्धति और पारम्परिक खेती पर आधारित कृषि के माध्यम से ही हम अपने देश मंे नए ’अन्न-स्वराज’ की स्थापना कर सकते हैं। देश तथा उसके किसानों को भूखमरी, कर्ज के कुचक्र तथा आत्महत्याओं से दूर रखने के लिए हमारे पास एक मात्र नैतिक हथियार यह है कि हम भारतको कृषि-रसायन बेचने वाली कम्पनियों के औपनिवेश बनने से दूर रखें।

लेखिका पर्यावरणविद् तथा नवधान्य, बायोडाइवर्सिटी एंड कंजर्वेशन की संस्थापक हैं।

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