एक हमारी धरती सबकी, मानवता इसका मुल्यांकन
इतिहास में पहली बार मानव प्रजाति का भविष्य अनिश्चितता के दौर से गुजर रहा है। मानव समाज ने धरती को अब तक बहुत घायल कर दिया है। यही स्थिति बनी रही तो इस सृष्टि से मानव प्रजाति और उसकी संस्कृति निश्चित ही विलुप्त हो जाएगी। पिछले 200 वर्षों से हमने जीवांश ईंधन का इस कदर दोहन किया कि ऊर्जा प्रदान करने वाले इस द्रव्य के अकूत भंडार खोखले हो चुके हैं। अब प्रकृतिक में संतुलन स्थापित करने हेतु एक मात्र विकल्प यह है कि हमने इस धरती को जो घाव दिये हैं, उनकी भरपाई कर पृथ्वी की आरोग्यता को बढ़ाया जाएं और सृष्टि के इस ग्रह को चिरायु बनाए रखने के लिए हर सम्भव प्रयास किए जाएं। ऐसा करने के लिए मानव समाज में एकता का संचार और भविष्य के प्रति एक सकारात्मक आश बनाए रखना परम आवश्यक है। देश का नागरिक होने के नाते हमारा कर्तव्य है कि हम अपने प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण कर इस धरती की रक्षा करें। धरती हमारी मां है और उसकी रक्षा में ही हम सबकी भलाई और हमारा भविष्य सुरक्षित है।
ग्रहों की सीमा का उलंघन और पारिस्थितिकी पर अतिक्रमण: आज मानव द्वारा जीवन के लिए आवश्यक पारस्थितिक प्रक्रियाओं को बाधित करने के साथ धरती की सीमाओं का उलंघन किया किया जा रहा है। जीवाश्म-ईंधन पर आधारित हावी तकनीक और आर्थिक मॉडल प्राकृतिक संसाधनों का क्षरण करते जा रहे हैं। यह सब पृथ्वी के लिए विनाशकारी सिद्ध हो रह है। जलवायु संकट, भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी, अपराध, षणयंत्र, युद्ध, जबरन पलायान तथा शरणार्थी संकट ये सभी लोगों से जीवन, आजीविका तथा भूमि को छीन रहे हैं। कुल मिलाकर धरती पर हमारे जीवन का प्रमुख आधार ’मिट्टी’ और मानवता दोनों संकट की स्थिति से गुजर रहे हैं।
जीवाश्म-ईंधन कोई स्थाई विकल्प नहीं है। इस अस्थाई ऊर्जा स्रोत पर आधारित औद्योगिक कृषि प्रणाली ने अब तक कोई 2 अरब हेक्टेयर कृषि भूमि को बर्बाद कर दिया है। आंकलन करने से ज्ञात होता है कि संकट में पड़ी यह कृषि भूमि पूरी धरती के कुल उपजाऊ क्षेत्र से अधिक है। इसी तरह से अफ्रीका के चारागाहों के अकुशल प्रबंधन से 80 प्रतिशत से अधिक भू-भाग के उत्पादन स्तर में गिरावट आ गई है। औद्योगिक कृषि भी जी.एम.ओ. बीज जीवाश्म-ईधन तथा रासायनिक खादों पर आधारित खेती के समान ही जलवायु पर बुरा प्रभाव डालती है। इस तरह की खेती जलवायु बुरी तरह से प्रभावित करती है।
सन् 2000 के बाद समूची दुनिया ने इस वातावरण में कार्बन की लगभग 100 अरब टन मात्रा छोड़ी है। वर्तमान में ग्लोबल वार्मिंग की इस बढ़ती दर के कारण बड़े पैमाने पर जमीन बंजर और फसलें खराब हो रही हैं। एक तरफ जहां तटीय क्षेत्रों पर बाढ़ का कहर बरप रहा है तो हिमनदों से तेजी के साथ बर्फ पिघल रही है। वनस्पतियां और जंतु तेजी से विलुप्त होते जा रहे हैं। लोग बड़ी संख्या में अपनी स्थाई जगहों को छोड़कर पलायन कर रहे हैं, उनमें भोजन और पानी के लिए संघर्ष तेजी से बढ़ रहे हैं। स्थिति यह है कई तरह की बीमारियां देखने और सुनने को मिल रही हैं और समाज पतन की तरफ जा रहा है।
जीवन पर हावी हो रहे ’जीवाश्म-कार्बन’: जीवाश्म-कार्बन ने हमारे जीवन के प्रत्येक पहलू यथा हवा, पानी, भोजन, चिकित्सा, ईंधन, और कृषि में हर प्रकार से प्रवेश कर लिया है। वायुमंडलीय उत्सर्जन और पारिस्थितिकी तंत्र में प्लास्टिक प्रदूषण के माध्यम से यह कार्बन हमारी वनस्पति प्रजातियों से लेकर मानव स्वास्थ्य तक को प्रदूषित कर रहा है। प्रकृति ने जल को सभी के लिए स्वतंत्र स्रोतों के माध्यम से उपलब्ध किया था, उसका भी हमने निजीकरण कर दिया है। पीने के पानी को अब बड़ी-बड़ी कम्पनियां प्लास्टिक की बोतलों में भरकर बेच रही हैं। यह प्लास्टिक हमारे पानी के साथ ही हमारे जल-स्रोतों सहित समुद्र का भी नाश कर रहे है, जिससे जीवन संटक ग्रस्त होता जा रहा है। हमारे खेतों की मिट्टी पेट्रो-केमिकल्स रसायनों से पट गई है, जिससे इस मिट्टी में उपस्थित सूक्ष्म जीवों का नाश हो रहा है। जीवाश्म-कार्बन पर हमारी निर्भरता ने हमारे सोचने, समझने, जीने-खाने यहां तक कि जैव-विविधता आधारित हरित-कार्बन को भी आर्थिक रूप से महंगा कर दिया है। कच्चे तेल के प्रति हमारी निर्भरता ने एक तो हमारी आर्थिक व्यवस्था में जबरन घुसपैठ कर ली है और ऊपर से इसके कारण लाखों लोग काल के ग्रास बन गये। अब तक कई युद्ध और विस्थापन इस तेल के कारण हो चुके हैं।
शक्ति का केंद्रीकरण: बाजरू शक्तियों के चलते लोगों ने सज्जनता का परित्याग कर दिया है। शक्ति का विकेंद्रीकरण की बजाय उसका केंद्रीकरण होता जा रहा है। विश्वभर में भूमि को हथियाने की बातें सामने आ रही हैं। उपजाऊ भूमि में जैव-ईंधन के नाम पर और पशुओं को चारे के रूप में सोया तथा मक्का उत्पादन कर एकल खेती और औद्योगिक खेती को अत्यधिक बढ़ावा मिलने के कारण जंगल के जंगल समाप्त हो रहे हैं।
भूमि के उपयोग में लगातार परिवर्तन के चलते पलायन को बहुत अधिक बढ़ावा मिल रहा है जिस वजह से जलवायु परिवर्तन में संतुलन की सम्भावनाओं पर संकट बढ़ता जा रहा है।
आर्थिक असमानता में वृद्धि: व्यापक विरोध के बावजूद, वैश्विक आर्थिक असमानता में वृद्धि जारी है। अमीर और गरीब के बीच असमानता की खाई लगातार बढ़ती जा रही है। पिछले वर्ष दुनिया के सबसे अधिक अमीर 300 व्यक्तियों के पास 524 अरब डॉलर रूपये की दौलत थी।यह धन दुनिया के सबसे गरीब 29 देशों की संयुक्त आय से कहीं अधिक है। हमारे समाज में जितनी अधिक आर्थिक असमानता होगी, हिंसा की दर उसी अनुपात में बढ़ती जाएगी।
संघर्ष, युद्ध और पलायन: आर्थिक असमानता के कारण समाज में हिंसक प्रवृतियों को बढ़ावा मिलता है, जिसका परिणाम अंततः हमारे पर्यावरण को झेलनी पड़ता है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिर्पोट के अनुसार पिछले 60 वर्षों की अवधि में होने वाले लगभग 40 प्रतिशत राज्यातंरिक संघर्ष भूमि और प्राकृतिक संसाधनों के कारण हुए। चाहे 1984 के पंजाब में हुए दंगे हों या आज के दौर में सीरिया और नाइजीरिया की बात करें ये सभी विनाशकारी संघर्ष भूमि, मिट्टी-पानी, आजीविका तथा पहचान बनाए रखने की वजह से ही हुए। ऐतिहासिक घटनाएं स्पष्ट करती हैं कि भूमि ने संस्कृति और सांस्कृतिक विविधता को निर्मित किया है, जोकि जैविक विविधता के साथ-साथ विकसित हुई हैं। लेकिन, इस दौरान विकसित हुए पारिस्थितिक संदर्भों में कहीं भी धार्मिक संघर्षों ने अपना कोई सकारात्मक योगदान नहीं दिया। आक्रामक अर्थव्यस्था और लोकतंत्र विरोधी राजनीति ने संस्कृतियों को हिंसक बनाने के लिए आग में घी जैसा कार्य किया। इन संघर्षों के कारण लाखों लोग बेघर होकर शरणार्थियों जैसी दुष्कर जिंदगी जीने को मजबूर हो गये। इन संघर्षों के कारण ही कमजोर संस्कृतियांे ने अपनी पहचान बनाये रखने के लिए आतंकवाद, उग्रवाद आदि को जन्म दिया।
संघर्ष के इन परिणामों से बचने का विकल्प यही है कि हम हिंसा का बहिष्कार कर सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से इतने प्रबल हों कि सम्पूर्ण समाज में असमानता और वैमनस्व के लिए कोई स्थान ही न रहे। ऐसा तभी सम्भव है, जब हम आर्थिक गतिविधियों पर नैतिक और पारस्थितिक रूप से नियंत्रित करेंगे, जब हम व्यापार में पारदर्शिता लायेंगे और अहिंसा का महत्व समझंेगे।
भय और घृणा की राजनीति तथा लोकतंत्र का पतन: सरकार कॉर्पोरेट जगत के दबाव में आकर लोकतंत्र का मूल मंत्र यानि’ जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा’ को भूल गई है। आज राजनीतिक शक्ति का मुट्ठी भर लोगों के द्वारा पूरी पृथ्वी और उसकी विभिन्न प्रजातियों पर अधिकार होने की स्थिति दृष्टिगोचर हो रही है।
अब हमारे पास चुनौती यह है कि हम शोषणकारी राजनीति और गैर-टिकाऊ आर्थिक मॉडल का कायाकल्प कर लें। आज बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कारण हमारी वसुधा और उसकी जलवायु संकट के घेरे में है। हमें इन चुनौतियों से शीघ्र उभरने के प्रयास मिलकर करने होंगे।
औद्योगिक-कृषि जलवायु के लिए राक्षस: हम लगातार बढ़ रहे जलवायु परिवर्तन से तब तक नहीं निपट सकते, जब तक कि विश्व के भोजन-तंत्र और उसकी पद्धतियों में संतुलन स्थापित नही कर देते। औद्योगिक कृषि हमारे पर्यावरण के लिए एक ऐसा राक्षस सिद्ध हो रही है, जिस पर समय रहते नियंत्रण करना अति आवश्यक है। वनों की कटाई, जानवरों के लिए चारा उत्पादन के बहाने जैव-विविधताओं के विनाश, लम्बी दूरी के परिवहन तथा भोजन की बर्बादी के कारण 40 प्रतिशत गीन-हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है, जोकि ओजोन परत के लिए जहर का कार्य करती हंै। हम तब तक जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण नहीं पा सकते, जब तक छोटे-छोटे पैमाने तक पारस्थितिक कृषि, जैव-विविधता पर आधारित जैविक बीज, जैविक-मिट्टी, तथा स्थानीय खाद्य-प्रणाली के साथ कम से कम भोजन की बर्बादी, तथा प्लास्टिक के उपयोग पर नियंत्रण नहीं पा लेते।
आज जीवाश्म-ईंधन आधारित गहन-औद्योगिक कृषि तथा ’मुक्त व्यापार संधि’ पृथ्वी पर सामाजिक और पारिस्थितिक नुकसान के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार हंै। यह वस्तु आधारित कृषि 75 प्रतिशत मिट्टी का विनाश; 75 प्रतिशत जल संसाधनों का विनाश और तथाकथित उन्नत-बीज और पोषण-रहित खोखले तथा विषाक्त खाद्यान से 93 प्रतिशत जैव-विविधता के ह्रास के साथ ही नदी, झील और महासागरों के जल के विनाश के लिए उत्तरदाई है। बड़ी-बड़ी बहुदेशीय कम्पनियों द्वारा हर वस्तु को ’क्लाइमेट स्मार्ट यानि ’जलवायु सहिष्णु’ करार देने की रणनीति एक मात्र छलावा है।
एकमात्र वैकल्पिकः पारिस्थितिक कृषि: पारिस्थितिकी के आधार पर जैविक-कृषि और स्थानीय खाद्य-प्रणाली से ही कुपोषण एवं स्वास्थ्य सम्बंधी संकटों के साथ जल तथा जलवायु परिवर्तन जैसी आपदाओं पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
स्थानीय खाद्य-अर्थव्यवस्था को निर्मित करने से मानव को स्वास्थ्य सम्पन्न और पर्यावरण को संकट मुक्त बनाया जा सकता है। स्थानीय खाद्य अर्थव्यवस्था के लिए हमे स्थानीय भोजन की जरूरत है और स्थानीय भोजन के लिए आवश्यक है कि हम स्थानीय बीजों को उपयोग में लाएं तथा किसान अपने बीजों को स्वयं उगाएं।
प्रत्येक बीज में एक सृष्टि समाहित होती है। यह प्रकृति अपनी यात्रा को इन बीजों की सृष्टि के बल पर ही आगे बढ़ाती है। प्रकृति के इस कार्य को सरल बनाने में किसान बहुत बड़ी भूमिका निभाता है। वह अपनी नई फसल के लिए बीजों को तैयार करता है और बीज प्रजनक कहलाता है। जलवायु परिवर्तन के इस दौर में किसान के पास कृषि जैव-विविधता को बढ़ाने और उसे बनाए रखने की बहुत बड़ी चुनौती है। इस चुनौती को छोटे किसान ज्यादा अच्छे से निभा सकते हैं। छोटे किसानों के द्वारा ही इस विश्व के 70 प्रतिशत लोगों को भोजन मात्र 30 प्रतिशत संसाधनों के उपयोग के आधार पर किया जाता है। वहीं औद्योगिक खेती 70 प्रतिशत संसाधनों का उपयोग के बदले में 40 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का उत्सर्जन करती है।
जैविक खेती वातावरण से अतिरिक्त कार्बन-डाइऑक्साइड को प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से मिट्टी में वापस भेजती है। ऐसी खेती के माध्यम से मिट्टी की जलधारण क्षमता में भी वृद्धि होती है, जिससे सूखे की स्थिति से निपटने में सहायता मिलती है। इस तरह से जैविक खेती ही वह माध्यम है जिससे वातावरण में लगातार बढ़ रही कार्बन डाइआॅक्साइड की मात्रा पर नियंत्रण कि साथ गिरते हुए भू-जल स्तर में सुधार लाया जा सकता है।
दुनिया भर में सभी छोटे किसान और बागवान भाई-बहन अपने पारम्परिक ज्ञान के माध्यम से मिट्टी और बीजों का संरक्षण कर रहे है। ऐसे किसान शुद्ध, स्वस्थ एवं पोषण युक्त भोजन पैदाकर जहां अपने समुदाय को भोजन प्रदान कर रहे हैं वहीं पेट्रो-केमिकल्स को चुनौती देकर पृथ्वी-ग्रह को बचाने में अपना योगदान दे रहे हैं। इस तरह से छोटे किसान अपने अथक प्रयासों से इस धरती पर ’भोजन का गणतंत्र’ स्थापित कर कर रहे हैं।
मानव और पृथ्वी के लिए एक नई संधि: हमारे लिए धरती पर सभी मानव एक समान हैं। इसलिए हम सम्पूर्ण धरती को एक परिवार (वसुधैव कुटुम्बकम) मानते हैं। हम इस अखिल विश्व-परिवार के नागरिक हैं और अपने ग्रह यानी इस धरती को बचाना हम सभी का कर्तव्य और धर्म है। इसीलिए आज हम समूचे मानव समाज के साथ ’पृथ्वी और उसके सबसे अद्भुत प्राणी यानि मानव को बचाने का समझौता यानि संधि प्रस्तुत करते हैं।
यह सार्वभौमिक सत्य है कि पृथ्वी है तो मानव है और मानव है। यह पृथ्वी चिरायु रहेगी तो मनुष्य भविष्य में इस भूमि की उर्वरा-शक्ति तथा विविध फसलों के बीजों की अंकुरण-शक्ति से अपने समुदाय का पालन-पोषण कर सकेगा। हां, मानव नामक इस प्राणी के संरक्षण के लिए इस प्रकृति में सम्पूर्ण जैव विविधता का सुरक्षति रहना अति आवश्यक है। आज लगातार अपभोगवादी संस्कृति और अति स्वार्थपूर्ण काॅपोरेट जगत को अपने नजरिये को बदलने की आवश्यकता है। हम सभी को मिलकर अपने स्वार्थ और लालच को ईमानदारी और जिम्मेदारी में बदलना होगा, तभी मानवता रूपी बीजों को संरक्षण प्रदान किया जा सकेगा।
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन की पूर्व संध्या पर पूरी दुनिया की नजर पेरिस पर टिकी हुई है। इस ऐतिहासिक अवसर पर सम्पूर्ण विश्व के लोगों को प्राकृतिक संसाधनों के शोषण और निजीकरण के स्थान पर कृतज्ञतापूर्ण लौटाने की प्रवृति के साथ जल, वायु, मिट्टी बीज और भोजन पर जनसामान्य का अधिकार हेतु चैतन्य करने के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए। जलवायु संकट, भोजन संकट और जल संकट का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बंध है तथा इन संकटों का समाधान इन तत्वों संरक्षण में ही अंतर्निहित है। ये सभी घटक एक-दूसरे से किसी तरह भी अलग नहीं हैं।
पृथ्वी और मानवता की रक्षा करने के लिए एक समझौता
देश का नागरिक होने के नाते हमारा कर्तव्य है कि हम अपने प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण कर इस धरती की रक्षा करें। धरती हमारी मां है और उसकी रक्षा में ही हम सबकी भलाई और हमारा भविष्य सुरक्षित है।
1. जैविक मिट्टी में निवास करती है- हमारी सभ्यता, सुरक्षा और समृद्धि।
हम अपनी मिट्टी और जैव-विविधता की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हंै। हमारी जैविक मिट्टी कार्बन को ग्रहण करती है और पानी का संग्रह करती है। पारिस्थितिकीय संतुलन पर आधारित कृषि पुर्नचक्रीकरण के आधार पर कार्बनिक पदार्थों को पोषक तत्वों में बदलती है। सर अलबर्ट हावर्ड ने कहा था कि इस मिट्टी को कुछ दिये बिना ही धरती से विभिन्न वस्तुएं प्राप्त करना डकैती करना जैसा है। हम धरती द्वारा द्वारा किये गये उपकारों के आभारी हैं और लौटाने की रीति को ध्यान में रखते हुए अपनी जिम्मेदारी को मानते हुए हम उसे जैविक कार्बन को जैविक पदार्थ के रूप में वापस लौटायेंगे।
2. हवा-पानी, मिट्टी, वातावरण, जैव-विविधता और बीज हम सबके लिए हैं।
पृथ्वी ने हमें जीवन रूपी महत्वपूर्ण उपहार दिया है। यह उपहार सभी के लिए समान अधिकार, कर्तव्य, आजीविका और रक्षा लिए हुए है। हमारी जैव-विविधता और विभिन्न तरह के बीज जनसाधारण के लिए है। इनको पेटेंट करने का अर्थ है अपनी जैव-विविधता को विनाश और किसानों को कर्ज की गर्त में धकेलना। बिना मिट्टी के न तो जीवन और ना ही भोजन की प्राप्ति सम्भव है। जल भी जनसाधारण के लिए है। यह कोई व्यापार की वस्तु नहीं है। ’जल है तो जीवन’ है। वातावरण और उससे मिलने वाली वायु हमें जीवन-शक्ति देती है। वातावरण जितना स्वस्थ रहेगा हमारी जलवायु उतनी ही स्वस्थ होगी। आज मिट्टी, हवा, और जल का लगातार निजीकरण होता जा रहा है जिसके कारण हमारा वातावरण लगातार प्रदूषित हो रहा है। हमें इन तत्वों का किसी भी कीमत पर निजीकरण होने से रोकना होगा। हमें इन जीवन तत्वों को सहयोग, देखभाल और एकजुटता के आधार पर रक्षा करके उन्हें पुनः प्राप्त होगा।
3. बीज-स्वतंत्रता और जैव-विविधता भोजन की स्वतंत्रता और जलवायु स्थिरता की नीव है।
हम बीज-स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध हैं। हम सभी मानव समुदायों के साथ मिलकर ईमानदारी पूर्वक संगठनात्क रूप में जैव-विविधता को बचाकर सभी के लिए बीजों की उपलब्धता निश्चित करेंगे। खुले परागण के आधार पर बढ़ाये गए गैर-जी.एम.ओ और गैर-पेटेंट बीजों का आदान-प्रदान करना हमारा अभिन्न अधिकार है। किसानों के अधिकार स्वयं प्रकृति द्वारा संरक्षित हैं। यह धरती हमें आदिकाल से हमारी पीढि़यों को अपनी जैव-विविधता के माध्यम से पाल-पोष रही है। बीज प्रकृति का अनमोल उपहार है। यदि कोई भी कानून अथवा प्रौद्योगिकी हमारी बीज-स्वतंत्रता को कमजोर करने का प्रयास करेगा हम ऐसे प्रयासों का विरोध करेंगे। हम अपने बीजों की रक्षा करने के साथ ही जी.एम.ओ. तथा पेटेंट के विरोध में एक साथ खडे़ रहेंगे।
4. औद्योगिक कृषि है जलवायु संकट के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार।
हरित-गृह गैसों को बढ़ावा देने में विश्व भर में की जा रही औद्योगिक खेती 40 प्रतिशत से अधिक का योगदान है। हरित-गृह गैसे हमारी जलवायु के संतुलन को बिगाड़ रही हैं। ये गैसे वनों के कटाव, जीवाश्म- ईंधन पर आधारित खादों, पैकेजिंग, प्रसंस्करण, रिफ्रिजरेटर और लंबी दूरी के परिवहन के कारण अधिक उत्सर्जित हो रही हैं। ज्ञात हो कि औद्योगिक खेती जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण है ऐसी खेती से कभी भी भुखमरी और जलवायु परिवर्तन की समस्या का हल नहीं मिल सकता। हम जलवायु परिवर्तन को भू-प्रौद्योगिकी, ’स्मार्ट क्लाइमेट’ एग्रीकल्चर, जैव यांत्रिकी के आधार पर शोधित बीज और सतत सघनता जैसे समाधानों में कभी विश्वास नहीं रखते।
5. पारिस्थितिकी पर आधारित छोटी कृषि जोत और स्थानीय खाद्य प्रणाली से मिलेगा तापमान पर नियंत्रण और भरपूर पोषण।
हम पारस्थितिकी पर आधारित छोटी जोत की खेती करने के लिए सदैव तत्पर हैं। ऐसी कृषि-भूमि से जहां हमें अपने भोजन का 70 प्रतिशत भाग मिलता हैं, वहीं जैव-विविधता और जल-तंत्र के साथ जलवायु को स्थिरता भी मिलती है। हम ऐसे स्थानीय भोजन-तंत्र स्थापित करने मे सहयोग देंगे, जिनसे भोजन और पोषण की प्राप्ति के साथ ही जलवायु संकट का समाधान भी सम्भव हो सके। जैव-पारस्थितिकी, छोटी-कृषि जोत तथा स्थानीय भोजन-तंत्र सम्पूर्ण विश्व को पोषण के साथ जलवायु संतुलन देने मंे सक्षम है।
6. मुक्त व्यापार और कॉर्पोरेट जगत की बेलगाम स्वतंत्रता पृथ्वी और मानव स्वतंत्रता के लिए खतरा है।
प्रकृति हमें जीवन जीने के लिए स्वतंत्र और अबाध रूप से वायु, जल, और अन्न प्रदान करती है। इन तत्वों के अतिरिक्त सम्मान जनक जीवन जीने के लिए स्वतंत्रता की आवश्यकता होती है, लेकिन आज कार्पोरेट जगत ने ’मुक्त व्यापार’ के माध्यम से हमारी स्वतंत्रता को छीन लिया है। कार्पोरेट जगत अपने लाभ के लिए लगातार जैव-विविधता को अपना बंधक बना रहा है। कार्पोरेट जगत प्रकृति द्वारा प्राप्त प्रत्येक का तत्व का बालात ब्यापार करने पर लगा हुआ है। इसके चलते हमारी धरती कई संकटों की शिकार हो रही है और जनसामान्य की आर्थिक स्थिति भी बिगड़ती जा रही है। पिछले दो-दशक यानी जबसे कि विश्व व्यापार संघ ने कार्पोरेट जगत के द्वारा लाये गये ’मुक्त व्यापार’ समझोते पर हस्ताक्षर किये, तब से व्यापार में ढ़ील के चलते पारस्थितिक एवं सामाजिक अस्थिरता में बढोंत्तरी हुई है। हम पारदर्शी व्यापार में विश्वास रखते हैं और टी.टी.आई.पी. तथा टी.पी.पी. जैसे कार्पोरेट्स के अधिकारों को बढ़ाने वाले किसी भी समझोते का विराध करते हैं। कार्पोरेट जगत को जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देने और पर्यावरण को अत्यधिक मात्रा में प्रदूषण फैलाने के एवज में हर्जाना भरना होगा।
7. अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने वाले स्थानीय तंत्र ही वास्तव में सार्थक कार्य कर रहे हैं और इन्हीं से पृथ्वी और अन्य सभी की भलाई हो सकती है।
प्रकृति से हमें ’प्राप्त करने की अपेक्षा देने’ में विश्वास करने की शिक्षा मिलती है। स्थानीय और जीवंत अर्थव्यवस्था भी इसी आधार पर फलूभूत होती है। विशेष वर्ग को लाभ पहुंचाने की अपेक्षा जनसामान्य का जीवन संवारने और कल्याण के भाव से आगे बढ़ रही अर्थव्यवस्था पर भविष्य निर्भर करता है। औद्योगिक कृषि का ध्येय मात्र और मात्र उत्पादन और उपभोग है, इसीके चलते ऐसे कृषि-तंत्र ने जैव-विविधता का विनाश कर धरती की पारस्थितिक प्रक्रिया में बहुत बड़ी बाधा पहुंचाई है और लाखों लोगों को खेती-विहीन कर दिया है। जैविक अर्थव्यवस्था में बर्बादी के लिए कोई स्थान नहीं है।
8. ’वसुधैव कुटुम्बकम’ का मतलब ’विविधता में एकता’।
हम परस्पर सहभागिता और स्वस्थ लोकतंत्र में विश्वास करते हैं और अपने लाभ के लिए लोकतंत्र से छेड़खानी का हम प्रबल विरोध करते हैं। हम पृथ्वी तथा उसके प्राणियों के कल्याण हेतु साझेदारी और विविधता में एकता के सिद्धांत को अपना आदर्श मानते हैं। हम हिंसा और अधःपतन के दुष्चक्र को तोड़ने और सभी लोगों और सभी प्रजातियों की भलाई के लिए अहिंसा और उत्थान के आधार पर सद्भाव बढ़ाने हेतु प्रतिबद्ध हैं। हम घृणा और द्वेष के आधार पर बंटने की अपेक्षा एक धरती और एक मानवता के रूप में बंधने में विश्वास रखते हैं। हम गांधी जी की उस शिक्षा में विश्वास रखते हैं जो कहती है, ’जब नियम और कानून मानवता के प्रति नैसर्गिक नियमों का उलंघन करने लगे तब एकजुट होकर असहयोग प्रारम्भ कर दीजिए।’
9. हम इस धरती के विशिष्ट समुदाय हैं।
हम पुनः ’वसुधैव कुटुम्बक’ यानी धरती में लोकतंत्र स्थापित करेंगे। ऐसा करने से मनुष्य में सभी प्राणियों के प्रति सद्भावना जगेगी और हमारी धरती चिरायु रहेगी। जब मानव में सभी के प्रति सद्भावना प्रकट होगी तभी मानवता से भरा-पूरा संसार खिल उठेगा और हमारे द्वारा अपनी मां यानी इस भूमि को कोई भी कष्ट नहीं मिलेगा और सच्चे अर्थों में धरती चिरायु हो सकेगी। तब सभी को भोजन, हवा, पानी, और सम्मान पूर्वक जीने का अधिकार मिलेगा। सही मायने में यही वास्तविक स्वतंत्रता है।
हम धरती और मानवता को बचाने के लिए एक समझौता-पत्र प्रस्तुत कर रहे हैं।
मनुष्य होने के नाते हमें पूरी-पूरी समझ है कि मनुष्य सहित सभी प्राणी और उनकी प्रजातियों को धरती पर उत्साह पूर्वक जीवन जीने का पूरा अधिकार है।
कि धरती मां के अधिकार और मानव अधिकार किसी भी तरह से एक दूसरे से अलग नहीं हैं।
कि धरती के साथ हिंसा और मानवता के प्रति अन्याय में कोई अंतर नहीं है।
कि न्याय, शांति मानवता और मानव अधिकार की निरंतरता को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।
10. हम यत्र-तत्र-सर्वत्र हम ’आशा के बाग’ के बाग लगाएंगे।
हम अपने खेत में, उद्यान में, बालकनी में, छतों में जैविक-अन्न उत्पन्न करेंगे।
हम पृथ्वी को स्वस्थ और प्रदूषण मुक्त करने हेतु एक ठोस समझोते के प्रतीक के रूप में में आशा के बाग लगाएंगे।
इस एक छोटे से कदम के द्वारा हम लाखांे लोगों में निहित उस शक्ति को जागृत करने का कार्य करेंगे, जिससे उत्पन्न एकता और सद्भावना से पृथ्वी की सेवा के साथ मानुष्यों के लिए स्वस्थ अर्थव्यस्था और जीवंत लोकतंत्र पोषित हो सकेंगे। इस तरह से अपनी पृथ्वी और उसके सद्भावना युक्त नागरिकों के लिए परिवर्तन के नए बीज बोएंगे।
हम ’वसुधैव कुटुम्बकम’ (धरती पर लोकतंत्र) को पुनः स्थापित करने और न्याय, गरिमा, स्थिरता तथा शांति बनाए रखने के लिए निरंतर परिवर्तन के बीज बोकर ’आशा के बाग’ लगाएंगे।
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